
मनुष्य जैसे-जैसे अपने अपनी बुद्धि के इस्तेमाल से दूसरे प्राणियों से ख़ुद को अलग और सुपीरियर समझने और साबित करने लगा, वैसे-वैसे उसके मन में इस दुनिया को, प्राणी जगत के रक्षक होने की भावना जन्म लेने लगी. इंसानियत वाली फ़ीलिंग या अवधारणा इसी से जन्मी. सैद्धांतिक रूप से ‘जियो और जीने दो’ की बात करने वाली हमारी यह अवधारणा ‘इंसानियत’ दुनिया के सभी प्राणियों पर समान रूप से लागू क्यों नहीं होती? इस बात को समझने के लिए जाने-माने आयुर्वेदिक चिकित्सक, लेखक और चिंतक डॉ अबरार मुल्तानी ने एक छोटा-सा प्रयोग किया. क्या रहा उसका नतीजा और उस नतीजे का निष्कर्ष ख़ुद डॉ मुल्तानी बता रहे हैं.
हम क्यों कॉकरोच और चिड़िया के बारे में अलग-अलग सोचते हैं?
हाल ही में मैंने फ़ेसबुक पर अपने दोस्तों को एक छोटा-सा काम दिया था कि, वे अपने बच्चों से पूछे कि,‘उन्हें कॉकरोच के मारे जाने पर दु:ख क्यों नहीं होता है और चिड़िया के मरने पर दु:ख क्यों होता है? जबकि वे दोनों ही जानवर हैं और दोनों में प्राण हैं.’ उन्हें मरते हुए देखने या मारे जाते हुए देखने पर क्या उनका मन अलग-अलग प्रतिक्रिया करता है? जवाब काफ़ी दिलचस्प थे या यह कहना बेहतर होगा कि मनोविज्ञान से भरे हुए थे. अधिकांश लोगों ने कहा कि,‘हमारे बच्चे कॉकरोच के मरने पर इसलिए दु:खी नहीं होते हैं क्योंकि, कॉकरोच गंदगी में रहता है, गंदगी फैलाता है, उससे घिन आती है, बीमारियों का कारण है, डरावना है…आदि. इसलिए वे कॉकरोच के मरने पर दु:खी नहीं होते. बल्कि दिखते ही उसे मारने के लिए प्रयास करने लगते हैं.’ जबकि चिड़िया के संबंध में वे कहते हैं कि,‘चिड़िया सुंदर होती है, वह ख़ूबसूरत आवाज़ में चहचहाती है, हमें कोई नुक़सान नहीं पहुंचाती, वह गंदगी नहीं फैलाती, उसका ख़ून हमारे ही ख़ून की तरह लाल होता है, उससे हमें बीमारियां नहीं होती हैं… आदि.’
क्या मनुष्य क्रुद्ध देवताओं सा बर्ताव करने लगा है?
मनुष्य का बर्ताव पिछली कुछ सहस्त्राब्दी से जब से उसने समूहों में रहना शुरू किया और आग और औजारों को पालतू बनाया है तब से क्रुद्ध देवताओं की तरह व्यवहार करने लगा है. जो जीव या वनस्पतियां उसे अच्छी लगती हैं या उसके फ़ायदे की होती हैं, वह उसे पनपने देता है और जो जीव या वनस्पति उसके किसी काम की नहीं हो या वह उसे पसंद ना हो या उसके लिए घातक हो उसे वह नष्ट कर देता है. कईयों को वह समूल नष्ट होने तक क्षमा नहीं करता. उसका श्राप जिसपर पड़ा वह विलुप्त हो गया और जिसे उसका वरदान मिला वह बाक़ी रहा.
आख़िरकार मनुष्य भावनाओं से संचालित होनेवाला वानर ही तो है!
स्वयं अपनी ही जाति के इंसानों से भी वह इसी तरह का व्यवहार करता है. यदि कोई व्यक्ति या समूह उसे या उसके समूह को पसंद ना हो या उसे उनसे घृणा हो या वह गंदगी फैलाएं या उसकी जान के लिए घातक हो तो, भी मनुष्य उन्हें मारने में हिचकेगा नहीं या उनकी मृत्यु पर उसे दुख नहीं होगा. मनुष्य धारणाओं द्वारा संचालित होने वाला एक वानर है. यदि किसी जीव या मनुष्यों के किसी समूह के प्रति उसके मन में धारणाओं का निर्माण कर दिया जाए तो उसका व्यवहार और संवेदनाएं बहुत हद तक नियंत्रित की जा सकती हैं. रोज़ाना आपको टीवी पर ऐड दिखाए जाते हैं कि कॉकरोच को जान से मारने के फलाने फलाने स्प्रे ख़रीदिए. तो यह एक बच्चे को भी बता देते हैं कि कॉकरोच तो मारने के लिए ही हैं. फिर आसपास सब उन्हें मारते हुए दिखते हैं तो उसे यह पक्का यक़ीन हो जाता है कि इसे मारना ज़रूरी है और इसकी मृत्यु पर दुःखी नहीं सुकून महसूस करो.
क्यों हमें अपनी धारणाओं को चेक करते रहना चाहिए?
यह हमारा मूल मनोविज्ञान है कि हम गंदे, बीमारी फैलाने वाले, जानलेवा, नुक़सानदेह, कुरूप, हमसे भिन्न और डरावने जीवों या वस्तुओं से नफ़रत करते हैं. इन्हीं वजहों से बच्चों को कॉकरोच के मरने का दुःख नहीं होता जैसा कि मेरे मित्रों ने बताया था.
धारणाओं से संचालित हम मनुष्यों को हमेशा चेक करते रहना चाहिए कि हमें चलाने वाली धारणाएं सही हैं या ग़लत. धारणाओं का दुरुपयोग होता है और आजकल लोगों के बीच नफ़रत फैलाने और उन्हें अलग करने के लिए तो बहुत ज़्यादा किया जा रहा है. न्यूज़ चैनलों की डिबेट और ख़बरें लोगों को हर रोज़ बांट ही तो रही हैं और एक दूसरे से नफ़रत करना सिखा रही हैं, वैसे ही जैसे कॉकरोच मारने के स्प्रे के ऐड करते हैं. यह हमारे मन में हमसे अलग समूह के दूसरे इंसानों के प्रति क्रूर बना देते हैं.
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