
कारपोरेट कल्चर और कॉम्पीटिशन के दौर में व्यक्ति का स्वभाव बदलता जा रहा है। हम अपने स्वभाव से अलग एक अभिनेता की तरह दुनिया के सामने आते जा रहे हैं। हमारे व्यवहार में स्वभाविकता कम और अभिनय अधिक होता है। अक्सर बाहरी दुनिया में किया गया अभिनय जैसा व्यवहार हमारे स्वभाव में उतरने लगता है। लोग दुनिया के सामने कुछ और होते हैं और अपने भीतर कुछ और। कई बार बाहरी दुनिया का तनाव हमारे भीतर तक उतर आता है। हमारा मूल स्वभाव कहीं खो जाता है। हम अपनेआप में नहीं रहते।
कई लोग गुस्से का अभिनय करते हैं, दफ्तर में, मित्रों में या सहयोगियों में, लेकिन वो गुस्सा कब खुद उनका स्वभाव बन जाता है वे समझ नहीं पाते। समय गुजरने के साथ ही व्यवहार बदलने लगता है। हमेशा प्रयास करें कि दुनियादारी की बातों में आपका अपना स्वभाव कहीं छूट ना जाए। आप जैसे हैं, अपनेआप को वैसा ही कैसे रखें, इस बात को समझने के लिए थोड़ा ध्यान में उतरना होगा।
हम कभी-कभी क्रोध करते हैं लेकिन क्रोध हमारा मूल स्वभाव नहीं है। क्या किया जाए कि बाहरी अभिनय हमारे भीतरी स्वभाव पर हावी ना हो। क्रोध पहले व्यवहार में आता है फिर हमारा स्वभाव बन जाता है। क्रोध स्वभाव में आया तो सबसे पहले वो हमारी सोच को खत्म करता है, फिर संवेदनाओं को मारता है। संवेदनाहीन मानव पशुवत हो जाता है।
इस क्रोध को अपने स्वभाव में उतरने से कैसे रोका जाए? बाहरी दुनिया को बाहर ही रहने दें। बाहरी दुनिया और भीतरी संसार के बीच थोड़ा अंतर होना चाहिए।
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